चन्दन श्रीवास्तव http://www.im4change.org से जुड़े हैं. उनके आलेख समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं. चन्दन से chandan@csds.in पर संपर्क किया जा सकता है.
टीवी पर विज्ञापन आता है- भाव भरे चेहरे वाली तकरीबन पाँच साल की एक बच्ची तनिक सहमी सी ड्राईंग रुम में खड़ी है। उसने फैन्सी ड्रेस पहन रखा है जिससे जान पड़ता है, उसे किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने जाना है। पिता सोफे पर बैठा टीवी देख रहा है। और फिर यक्षप्रश्न की शक्ल में एक आवाज कौंधती है- बेटी का फैन्सी ड्रेस या फिर क्रिकेट का क्रुशियल मैच। फिर निदान सुझाया जाता है-दोनों क्यों नहीं। निदान के कारण के रुप में दिखाया जाता है एक यंत्र जो टीवी पर चल रहे कार्यक्रम को रिकार्ड कर सकता है। मतलब, लाइव टेलिकास्ट देखने की मजबूरी से मुक्ति, अभी अच्छे पिता का फर्ज निभाते हुए बेटी को फैन्सी ड्रेस के कार्यक्रम में लेकर जाओ, फिर रिकार्डेड प्रोग्राम अपनी फुर्सत के हिसाब से देख लो।
यों तो इस विज्ञापन से कई सवाल जुड़े हैं, जैसे यही कि बेटी के फैन्सी ड्रेस और क्रिकेट के क्रुशिएल मैच का द्वन्द्व खड़ा ही कैसे हो सकता है। एक सचमुच का जीवन है, दायित्वनिर्वाह की तात्कालिक मांग से भरा हुआ जबकि दूसरा अपने किसी भी रुप में टीवी पर चल रही कहानी ही है, इसे बस देखा जा सकता है, शामिल नहीं हुआ जा सकता है, और इसलिए जबतक आप टीवी पर चल रही कहानी से कोई अपनापा कायम ना कर लें यह किसी दायित्व निर्वाह की मांग भी नहीं करता। लेकिन इस सवाल को थोड़ी देर के लिए छोड़ दें कि कैसे टीवी पर चलने वाला क्रिकेट का कोई क्रुशिएल मैच अपने दर्शक से ऐसी आत्मीयता कायम कर लेता है कि उसका देखा जाना उतना ही जरुरी लगने लगता है जितना जीवन के बाकी सच्चे प्रसंगों में शामिल होना। फिलहाल इसी सवाल पर विचार करें कि क्या लाइव टेलिकास्ट का विकल्प रिकार्डेड टेलिकास्ट हो सकता है।
लाइव टेलिकास्ट क्य़ा है- किसी घटनाक्रम का उसके घटने की वास्तविक समयावधि में ही छविमय प्रस्तुति। यह प्रस्तुति एक मायने में वास्तविक घटनाक्रम की तरह होती है- इसमें नतीजों का इंतजार करना पड़ता है। क्रिकेट मैच का ही उदाहरण लें तो फेंकी जाने वाली हर गेंद अपनी परिणति में क्या होगी, बाऊंड्री लाईन को छुएगी, उसके पार जाएगी, विकेट गिराएगी, विकेटकीपर या फिल्डिंग पर खड़े खिलाड़ी के हाथों में अंटकेगी या फिर नो बांल करार दे दी जाएगी, यह हम तब तक नहीं जानते जब तक वह फेंक ना दी जाय, उसपर बल्ला ना घूम जाय। इस अर्थ में फेंकी जाने वाली हर गेंद अपने आप में अनंत संभावनाओं को समेटे होती है, वह क्रिकेट के व्याकरण के भीतर अपनी सारी संभावनाओं में से किसी एक संभावनाओं को साकार करने वाली ऐसी गेंद होती है जिसकी नियति फेंके जाने के बाद ही तय होनी है।
इस अर्थ में फेंकी जा रही गेंद के लाइव टेलिकास्ट का अनुभव बहुत कुछ वास्तविक जीवन सरीखा होता है। जीवन में भी आप नहीं जानते कि आपके प्रयास अगले पल कौन सा रंग लाने वाले हैं। चमत्कार की आशा, खतरे की आशंका, असफल रह जाने की चिन्ता, सफल होने का संतोष, सारा कुछ, भविष्य में घटित होने वाले क्षण के परिणाम के रुप में ठिठका रहता है। रोमांच बरकरार रहता है, कल्पना जागते रहती है. और जागी हुई कल्पना व्यक्ति के स्वभाव और स्थिति के अनुसार मन में आने वाले पल की एक से ज्यादा तस्वीरें गढती है। भविष्य मौजूद नहीं होता, लेकिन उसकी कल्पना मौजूद होती है, और यह कल्पना भविष्य को अपने मन के हिसाब से ढालने के लिए प्रयास करने के लिए उकसाती है। सारी मानवीय सर्जनाओं का उत्स भविष्य की आहटों को संजोने वाली इन तस्वीरों में ही छुपा होता है।
रिकार्डेड टेलिकास्ट देखने का अर्थ है, अपने नतीजों और असर के लिहाज से जो कुछ पहले घटित हो चुका है, उसे फिर से देखना। क्रिकेट मैंच का नतीजा मालूम हो चुका है, यह भी पता है कि मैंच के हार-जीत के गणित में किसने कितना जोड़ा-घटाया और यह भी कि इस जोड़-घटाव का क्या असर रहा। मगर, फिर भी क्रिकेट मैच को देखना है, क्योंकि दिनचर्या के एक आवश्यक अंग के रुप में यह आपसे छूट गया था। नतीजों की जो अनिश्चितता कल्पना को जन्म देती है, उसके लिए रिकार्डेड टेलिकास्ट में कोई स्थान नहीं रह जाता। आप जाने हुए को फिर से जानने की कोशिश करते हैं।
ऐसे में फिर से सवाल करें जो उस विज्ञापन से उठता है। आखिर अपने नतीजों और असर में जाहिर हो चुके क्रिकेट मैच की रिकार्डेड तस्वीरे देखना क्यों जरुरी लगने लगता है।इसलिए कि, हर युग अपना खास यथार्थ गढ़ता है, बड़े उद्योग, विशाल बाजार और भरपूर उपभोग के दर्शन वाला हमारा समाज एक नया यथार्थ गढ़ रहा है। इसमें जीवन के वास्तविक अनुभवों का स्थान जीवन की छवियां लेती जा रही हैं।आदमी से आदमी का रोजाना का संबंध कहीं अवचेतन में अब उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया जितना आदमी का उपभोग की वस्तुओं से संबंध।
दूसरी बात यह कि सेवाओं और वस्तुओं की खरीददारी पूंजीवादी समाज जिस विशाल भूगोल में करता है, आदमी उस विशाल भूगोल का निवासी नहीं हो सकता। जहां तक देह की गतिशीलता की बात है उसकी एक सीमा है।रेलगाड़ी से लेकर हवाई जहाज तक की गतिशीलता अपनाने के बावजूद कोई उपभोक्ता-देह एक खास समय में उतने बड़े बाजार में मौजूद नहीं हो सकती जितना बड़ा बाजार उपभोग के लिए पूंजीवादी समाज प्रस्तुत करता है। विशाल उत्पादन जिस विपुल उपभोग की मांग करता है, उसके लिए जरुरी है उपभोग की सारी वस्तुओं को सूचनाओं में तब्दील करना। वस्तुओं की आवाजाही मुश्किल हो सकती है मगर द्रुततर संचार-माध्यमों की मौजूदगी के इस वक्त में वस्तुओं के बारे में सूचनाओं की आवाजाही नैनोसेकेंडों की बात है।सूचनाओं के माध्यम से तैयार होने वाला बाजार किसी एक स्थान में मौजूद नहीं होता। वह भूगोल की दूरियों को लांघकर एक ही समय में किसी एस्किमो को आईसक्रीम बेच सकता है तो किसी लेहनिवासी लामा को रुद्राक्ष की माला।
इसके लिए जरुरी होता है सूचनाओं को, उनके हर रुप में यानी शब्दरुप, ध्वनिरुप और छविरुप में विश्वसनीय बनाना। कुछ इतना विश्वसनीय कि वे अपने आभास में बेची जा रही वास्तविक वस्तु का बोध करायें। उसके बारे में ललक और उत्कंठा पैदा करें। फिर आप घर बैठे-बैठे उन चीजों के खरीदार बन जाते हैं। इंटरनेट-शापिंग, मोबाइल शापिंग या फिर टेलीशापिंग इसी का उदाहरण है।सूचनाओं का यह उपभोग रेडियो,टेलिविजन,मोबाइल सेट से लेकर होर्डिंग तक फैलकर आपकी चेतना को हर क्षण अपनी तरफ आकर्षित करता है, एक क्षण ऐसा आता है जब वस्तु के बारे में मौजूद सूचनाएं ही आपके मानस में वस्तु का विकल्प या फिर मानक बन जाती हैं। सूचनाएं, खासकर उनकी छवियां अपनी प्रस्तुति में जितना आवेग जगाती हैं उतना वास्तविक वस्तु नहीं।आंखों में जो छवि अपने डिजीटल अवतार में उतरती है वह अपनी मानसिक मौजूदगी में इतनी आवेगी हो सकती है कि आप उस वस्तु को ही भूल जाते हैं जिसकी वह छवि है।
बहुत पहले फायरबाख ने यही कहा था संचार-माध्यमों के सहारे बनने वाले इस समाज के बारे में- “यह समाज संकेत करने वाली अंगुली को ज्यादा महत्वपूर्ण मानने लगता है, संकेत की जा रही वस्तु को नहीं, नकल को मूल से, प्रस्तुति को वास्तविक से और आभास को सारतत्व से कहीं ज्यादा मानने वाला इस युग में सत्य ओछा ठहराया जाता है भ्रम को पवित्र माना जाता है।”
फैन्सी ड्रेस या क्रिकेट का क्रुशिएल मैच वाले उस विज्ञापन में यही सत्य उद्घघाटित होता है।मैच देख रहे बाप को बेटी से जुड़ा फर्ज उतना ही वास्तविक लगता है जितना क्रिकेट मैच देखने का फर्ज और रिकार्ड करने वाली मशीन वास्तविक अनुभवों के इस टकराहट का समाधान सुझाने के लिए चली आती है।
©चन्दन श्रीवास्तव