छठ-पूजा

प्रकाश के रे बरगद के संपादक हैं.

कातिक में अईहअ ए परदेसी बालम घरे होता छठ…
– कातिक में आईब ए
प्यारी धानी हमहूँ करब छठ…
(-परदेस में रहने वाले मेरे प्रिय, कार्तिक माह में आ जाना, घर में इस बार छठ की पूजा हो रही है…
-हाँ, कार्तिक में घर आऊंगा मेरी
प्यारी, मैं भी छठ का व्रत करूँगा…)

बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल की तराई में मनाया जाने वाला सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण पर्व है छठ. साल में दो बार – चैत्र (मार्च-अप्रैल) और कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर) में- होने वाले इस पूजा के अवसर पर दूरदराज़ के नगरों-महानगरों में रोज़गार के लिये गए लोग अपने घर लौटते हैं और पूजा में भाग लेते हैं. दीपावली के छः दिन बाद होने वाले छठ के महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लोग किसी और त्यौहार या अवसर पर घर भले न जाएँ, लेकिन इस पूजा में शामिल होने की पूरी कोशिश करते हैं. यही कारण है कि छठ के समय इन क्षेत्रों को जाने वाली रेलगाड़ियों में जबरदस्त भीड़ होती है और लोगों की सहूलियत के लिये विशेष गाड़ियाँ चलानी पड़ती हैं. तमाम कठिनाईयां सहकर भी लोग यात्रा करते हैं और चार दिन के इस पर्व में भागीदारी करते हैं. मैं हर साल इस अवसर पर अपने शहर डिहरी-ऑन-सोन पहुँचने की कोशिश करता हूँ और सोन नदी के किनारे सूर्य देव और छठी मैय्या की पूजा के विहंगम और व्यापक दृश्य का साक्षी होने की कोशिश करता हूँ.

मेरे अनुज माँ और मौसी को अर्ध्य दिलाते हुए

छठ का पर्व सिर्फ़ इन समाजों की गहन निष्ठा के कारण ही विशिष्ट नहीं है, बल्कि इस पूजा का स्वरुप भी इसे अन्य धार्मिक अनुष्ठानों, आयोजनों और त्योहारों से भिन्न पहचान देता है. किसी भी अन्य पर्व में पवित्रता और सादगी पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता जितना छठ में दिया जाता है, फिर भी चार दिन की इस पूजा में कर्मकांडों, पुरोहितों और मंदिरों की कोई भूमिका नहीं होती. पूजा के पहले दिन व्रत करने वाले स्नान कर कद्दू-भात का भोजन करते हैं. घर के एक कोने में पूजा और प्रसाद के लिये नारियल, केले आदि वस्तुएँ रखी जाती हैं और वहीं पर व्रत करने वालों का भोजन और प्रसाद पकाया जाता है. इस दिन को ‘नहाय-खाय’ कहा जाता है. अगले दिन ‘खरना’ किया जाता है जिसमें उपासक उपवास करते हैं और संध्या में गन्ने के रस में खीर बनाते हैं. घर के उसी हिस्से में इस खीर के एक हिस्से को हवन में डालते हैं और शेष को व्रती खाते हैं और परिवारजनों तथा सम्बन्धियों में प्रसाद-स्वरूप वितरित किया जाता है. उपासक अपना भोजन और प्रसाद की सामग्री स्वयं तैयार करते हैं और घर के उस पवित्र कोने में अन्य सदस्यों के जाने की मनाही होती है. खरना का खीर खाने के बाद निर्जल उपवास शुरू होता है. प्रसाद के रूप में गन्ना, अमरुद, नारियल, केला आदि फलों के साथ हाथ से पिसे हुए गेहूं के आटे में गुड़ मिला कर ठेकुआ पकाया जाता है. इन वस्तुओं के प्रति पवित्रता के भाव का अनुमान छठ के इस गीत से होता है:

केरवा जे फरेला घवद से ओह पर सुगा मड़राए,
उ जे खबरी जनईबो अदित से, सुगा देले जूठीआए,
उ जे मरबो रे सुगवा धनुख से, सुगा गिरे मुरछाए….. 
(छठ पूजा के लिये प्रयुक्त होने वाले केले के गुच्छे पर तोता घूम रहा था. मैंने तो भगवान आदित्य से शिकायत कर दी कि केले को तोते ने जूठा कर दिया. भगवान ने उसे धनुष से मारा और तोता मूर्छित होकर गिर पड़ा…..)

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि छठ के व्रती में दया और करूणा नहीं है. इस गीत में आगे गाया जाता है-

डेहरी में सोन नदी का घाट

उ जे सुगनी जे रोयेले वियोग से
आदित होईं न सहाय, देव होई न सहाय…..
(तोते के वियोग में उसकी प्रेयसी रो रही है. हे भगवान आदित्य, उसपर कृपा करें…..)

पूजा का तीसरा दिन सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है. संध्या के समय व्रतधारी और उनके परिजन नदी, तालाब या पोखर की ओर प्रस्थान करते हैं. परिवार के पुरुष माथे पर एक बड़ी सी टोकरी (दौउरा) में पूजा की सामग्री और प्रसाद लेकर चलते हैं और व्रती गीत गाते हुए चलते हैं:

कांच ही बांस के बहन्गिया
बहंगी लचकत जाये
होईं न बलम जी कहंरिया
बहंगी घाटे पहुंचाए…..
(कच्चे बांस की बनी हुई बहंगी लचकती हुई जा रही है. हे प्रिय, कंहार बन इसे घाट तक पहुंचा दीजिये…..)

आमतौर पर हमारे शहर और कस्बे गन्दगी के लिये जाने जाते हैं. लेकिन छठ के अवसर पर सब कोई, चाहे उनके यहाँ छठ की पूजा हो रही हो या नहीं, अपने घर के आसपास सफाई करवाता है जिसके कारण पूरा शहर गंदगी मुक्त हो जाता है. जो परिवार किन्हीं कारणों से छठ का व्रत नहीं कर पाते, वे अपने घर के सामने खड़े हो कर अगरबती या फल व्रतियों के दौउरे में डालते जाते हैं. धीरे-धीरे व्रतियों और लोगों का हुजूम सोन नदी की ओर बढ़ता है और नदी की रेत पर अपना घाट बनाता है. गन्ने को चारों ओर खड़ा कर छत्रनुमा रूप दिया जाता है जिसके नीचे सूप, दौउरा, दिया, अगरबती, प्रसाद आदि रख दिया जाता है.

वैसे तो डिहरी-ऑन-सोन की आबादी महज डेढ़ लाख की है लेकिन सोन नदी की व्यापकता के कारण आसपास के गाँव के व्रती भी एकत्र होते हैं. यह शहर भारतीय रेल की ग्रैंड कॉर्ड (दिल्ली-हावड़ा सेक्शन) पर है जिसे देश की जीवन रेखा भी कहा जाता है. प्राचीन धार्मिक-सांस्कृतिक शहरों- बनारस (120 किलोमीटर) और गया (90 किलोमीटर) के बीच बसे इस कस्बे से होकर जी टी रोड भी गुज़रती है. यहाँ सोन नदी की चौड़ाई का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि नदी पर बने रेल और सड़क पुल दुनिया के सबसे लम्बे पुलों में से हैं. कस्बे के लोग सामान्यतः नज़दीक के गावों से हैं जिसके कारण उनके सगे-संबंधी भी छठ के लिये डिहरी आ जाते हैं. सड़क और रेल मार्ग से जुड़े होने के कारण और सोन नदी के विलक्षण दृश्य के आकर्षण से दूरदराज़ के रिश्तेदार भी पूजा में सम्मिलित होते हैं.

छठ का पहला अर्ध्य (स्थानीय भाषा भोजपुरी में अरग कहा जाता है) डूबते सूरज को दिया जाता है और उसकी असीम कृपा के लिये कृतज्ञता व्यक्त की जाती है. वैसे तो दुनिया कि कई संस्कृतियों में सूर्य की आराधना की जाती है लेकिन छठ में पहली पूजा डूबते सूर्य की होती है और उससे प्रार्थना की जाती है कि वह कल सुबह अपनी पूरी गरिमा के साथ पुनः आए. नदी में स्नान के बाद व्रती अर्ध्य के तौर पर गाय का दूध चढ़ाते हैं. इस प्रक्रिया में किसी पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती है. कोई भी परिजन व्रती की सहायता कर सकता है. मंत्रोचार की जगह व्रती लोकभाषाओं के गीत गाते हैं:

हम तोहसे पुछिले बरतिया ए बरतिया से केकरा लागे
तू करेलू छठ बरतिया से केकरा लागे

हमरो जे बेटवा कवन अईसन बेटवा से उनके लागे
हम करेलीं छठ बरतिया से उनके लागे…..
(हे व्रती, मैं आपसे पूछता हूँ कि यह छठ का व्रत आप किसके लिये कर रही हैं. व्रती कहती है कि मैं अपने बेटे के मंगल के लिये छठ व्रत कर रही हूँ…..
गीत में आगे सारे परिजनों का ज़िक्र आता है.)

सूर्यास्त के बाद शहर के व्रती घर लौटते हैं लेकिन दूरदराज़ के लोग नदी घाट पर ही रात बिताते हैं. अगले दिन सूर्योदय से पूर्व व्रती फिर घाट पर जाते हैं और सूर्य देव से उगने की प्रार्थना करते हैं. नदी में स्नान कर दूसरा अर्ध्य दिया जाता है. इस पूजा की विशिष्टता यह भी है कि यह व्रत जितना सूर्य देव के लिये है उतना ही छठी मैया के लिये भी. गीतों में, प्रार्थनाओं में सूर्य और छठी मैया एक ही विराट छवि के दो रूप बन जाते हैं. छठी मैया का रूप कभी धरती का है, कभी नदी का, कभी शक्ति का, कभी देवी का. अर्ध्य के बाद लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं. इस पूजा में प्रसाद मांग कर खाने की परंपरा है. घर लौट कर व्रती भोजन ग्रहण करते हैं और इस चार दिन के उत्सव का समापन होता है. 

डेहरी में सोन नदी का घाट

छठ का व्रत एक बार फिर साबित करता है कि लोक धर्मों स्थानिक होते हुए भी शास्त्रीय धर्मों की सीमाओं से कहीं बाहर तक विस्तार रखते हैं. छठ शास्त्रीय धर्मों के कर्मकांडों, विधियों और मान्यताओं की परवाह नहीं करता है. इस पूजा की सादगी उसकी पवित्रता को उदात्त और गहन बनाती है. उसके विधान लोक-स्मृतियों में दर्ज़ हैं और उसकी स्थानिकता उसे सार्वभौम स्वरुप देती है.

लोक पर्वों और त्योहारों की शुरुआत का अनुमान पौराणिकता और ऐतिहासिकता से नहीं लगाया जा सकता है. छठ भी ऐसा ही एक पर्व है. वेदों में सूर्य को समर्पित ऋचाओं का होना और महाभारत में द्रौपदी द्वारा सूर्य पूजा किये जाने के वर्णन से बस इतना कहा जा सकता है कि सभ्यता के प्रारम्भ से ही मनुष्य प्राकृतिक अवयवों की पूजा करता आ रहा है. महाभारत की कथा के अनुसार ऋषि धौम्य के कहने पर द्रौपदी और पांडवों ने सूर्य की आराधना की थी. यह भी मान्यता है कि सूर्य और कुंती के पुत्र कर्ण ने छठ व्रत किया था और वहीं से इस पूजा का आरम्भ हुआ था. महाभारत के अनुसार, कर्ण अंग देश (वर्तमान में बिहार का भागलपुर क्षेत्र) के राजा थे. लेकिन यह अवश्य समझा जाना चाहिए कि छठ व्रत के दौरान किसी कथा या कर्मकांड की अनुपस्थिति, हिन्दू धर्म के शास्त्रीय स्वरुप से विलगन, तथा उसकी विशिष्ट स्थानिकता और सामुदायिकता उसे सभ्यता के आदि धर्म से जोड़ती है. छठ पूजा की पौराणिकता का आग्रह इस पूजा के साथ अन्याय होगा. आजतक इस पूजा के विधि-विधान का कोई मानक तैयार नहीं किया गया है और न ही उसे लिखित रूप दिया गया है. दरअसल ऐसा किया भी नहीं जा सकता है क्योंकि इस पूजा में सूर्य को जल या दूध का अर्ध्य देने और छठी मैया का गीत गाये जाने के अतिरिक्त अगर कुछ है तो वह व्रतियों और उन समाजों में इस अवसर को लेकर उत्कट सम्मान, पवित्रता और सादगी है. देश के एक हिस्से के कृषक समाज के आदिम धर्म के इस रूप को उसी रूप में हमें स्वीकार करना चाहिए तथा इसे पौराणिकता और ऐतिहासिकता की छाया से बचाना चाहिए. देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रचलित जीवित परम्पराएँ हमारी इसी ज़िद्द के कारण संकट में हैं.           

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