भोपाल निवासी सौमित्र रॉय पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनका ब्लॉग अदावत है और उनसे soumitraroy3@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

अक्टूबर-नवंबर का महीना। आसमान पर सफेद बादलों के गुच्छे। चमकदार धूप और चारों ओर छाई हरियाली। लगता है मानों किसी चित्रकार ने किसी के आगमन की तैयारी के रूप में धरती को बड़ी मेहनत से सजाया हो। आप ठीक समझ रहे हैं। यह समय है मां दुर्गा के आगमन का। शारदीय नवरात्र के नौ दिनों में वे देश के हर छोटे-बड़े शहर में विराजी जाती हैं। लेकिन बंगाल में उनका आगमन सिर्फ चार दिन के लिए होता है। वे धरती पर अपने बच्चों – सरस्वती, गणेश, लक्ष्मी और कार्तिकेय के साथ पधारती हैं। बंगालियों के लिए ये चार दिन खुशियों भरे होते हैं।
कोई भी बंगाली इन चार दिनों में अपने परिवार, दोस्तों, रिश्तेदारों को मिस नहीं करना चाहता। उसका एक ही मकसद होता है, दुर्गा पूजा से एक हफ्ते पहले घर पहुंच जाए। बंगाल की सीमा में घुसते ही खेतों में लहलहाती फसल, ताड़ के पेड़ और पटरियों के दोनों ओर खिले कांस के फूल। इन फूलों को देखते ही चेहरे खिल जाते हैं। ये मां के कदमों की आहट हैं। जिस तरह महाराष्ट्र में गणपति उत्सव मशहूर है, उसी तरह बंगाल में दुर्गा पूजा। एसोचैम का अनुमान है कि इस साल पूरे पश्चिम बंगाल में 10 हजार से ज्यादा दुर्गा पूजा समितियां पांच दिन के आयोजन में 40 हजार करोड़ रुपए खर्च करेंगी। यह पिछले साल के खर्च का तकरीबन आधा है। इस बार कच्चे माल की कीमत और सजावटी सामग्री की कीमतों में 35 फीसदी का इजाफा हुआ है। संदीप स्टोर्स के बिश्वनाथ डे के मुताबिक, इस साल मुकुट और बाकी नकली जेवरों की कीमतें 25 फीसदी तक बढ़ी हैं।
मुंबई से आने वाली जरी की साड़ी, मोती आदि महंगे हैं। रही-सही कसर ईको फ्रेंडली पेंट ने निकाली है, जिनकी कीमत लेड आधारित पेंट्स से दोगुनी है। फिर भी बड़े और भव्य पंडाल खड़ा करने वाली समितियों के चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखेगी। इनका 80 फीसदी से ज्यादा खर्च बड़े कॉर्पोरेट जो उठाते हैं। एक पंडाल का खर्च बांटने वाली 100 कंपनियां भी हो सकती हैं। जरूरत है अपने आयोजन की ब्रांडिंग करने की। पूजा पंडाल की थीम, सजावट और बाकी सुविधाओं के बारे में जो भी समिति बेहतर ब्रांडिंग करेगी, उसे उतने ही स्पांसर मिलेंगे। मिसाल के लिए, ब्यूटी प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनी इमामी ने इस बार 100 से ज्यादा पंडालों में भोग (प्रसाद) बांटने का जिम्मा लिया है। डाबर भी करीबन इतने ही पंडालों में दर्शनार्थियों को जूस पिलाएगी, तो टाइटन का ब्रांड तनिष्क देवी को गहनों से सजाएगा। मिठाइयों की जगह कई पंडालों में चॉकलेट बांटे जाते हैं। नए जमाने की इस कॉर्पोरेट दुर्गा पूजा की तरफ आंखें तरेरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है तो कुछ ऐसे भी हैं, जो बढ़ते खर्च के चलते धन की कमी को पूरा करने के लिए इसे जरूरी मानते हैं। यूं भी कॉर्पोरेटीकरण का चलन नॉर्थ कोलकाता के पंडालों में ज्यादा है। दक्षिण कोलकाता की बात करें तो यहां अभी भी परंपराओं का बोलबाला है। यही कारण है चमक-दमक से ऊबकर हजारों बंगाली दक्षिण कोलकाता के पंडालों का रुख करते हैं।
हालांकि, बंगाल की दुर्गा पूजा में भक्ति और दिखावे के अनुपात को लेकर हमेशा से ही विवाद रहा। प्लासी की लड़ाई में नवाब सिराजुद्दौला की हार के बाद जब बंगाल में अंग्रेजों का वर्चस्व कायम हुआ तो 1757 में एक अमीर जमींदार राजा नवकृष्ण देव ने शोभाबाजार राजबाड़ी में पहली बार दुर्गोत्सव की शुरूआत की। आसुरी शक्तियों का नाश करने वाली मां दुर्गा के विधिवत पूजन का यह पहला आधिकारिक इतिहास है। यह और बात है कि अंग्रेजों की आसुरी शक्तियां अगले करीब 200 साल तक देश को झेलनी पड़ीं। इसके बाद तो अंग्रेजों को खुश करने के लिए जमींदारों में दुर्गा पूजा की होड़ मच गई। पाथुरियाघाट मल्लिकबाड़ी, हाथखोला दत्ताबाड़ी, नीलमोनी मित्रा जैसे धनाढ्य जमींदारों ने दुर्गापूजा में दिल खोलकर खर्च किया। लोगों के दिलों में उतरने को बेताब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी हमीं से लूटे गए धन का एक बड़ा हिस्सा इन आयोजनों के लिए चंदे के रूप में दिया। भारतीय कॉर्पोरेट की तरह कंपनी ने भी 1765 में पूजा स्पांशरशिप में भारी रकम खर्च की। आज बंगाल में सार्वजिनक दुर्गोत्सव समितियों (सार्वोजोनिन दुर्गोत्सव) का जो चलन नजर आता है, उसकी नींव 75 साल बाद, यानी 1832 में पड़ी, जब एक जमींदार ने एक समुदाय विशेष के कुछ लोगों को पूजा बाड़ी में घुसने से रोक दिया। इस अपमान का बदला उस समुदाय ने अगले साल बारोयारी (12 दोस्तों की समिति) दुर्गा पूजा आयोजित करके ले लिया। बस तभी से बंगाल के दुर्गा पूजा में हर तबके के लोगों की प्रतिभागिता पर कोई रोक नहीं रही।
पैसा और रुतबा न सिर्फ व्यवस्था, बल्कि परंपराओं, मान्यताओं को भी बदल देता है। जमींदारों ने भी यही किया। नवकृष्ण देव के शोभाबाजार राजबाड़ी में देवी दुर्गा के वाहन को घोड़े और सिंह के संकर नस्ल के रूप में दिखाया जाता है। बीडन स्ट्रीट पर छाटूबाबू लालटूबाबू के पंडाल में दुर्गा अपने चार बच्चों के साथ नहीं, बल्कि जया और विजया नाम की बहनों के साथ विराजमान होती हैं। पाथुरियाघाट में मल्लिकबाड़ी की पूजा में दुर्गा अपने पति शंकर की गोद में बैठी मिलती हैं और न तो महिषासुर और न ही देवी का वाहन सिंह यहां नजर आते हैं।
वैसे दुर्गा पूजा पर परंपराओं का मूल कुमारटुली में है। यहां देवी की छोटी-बड़ी 14 हजार प्रतिमाएं बनती हैं। आज भी अगर आप कुमारटुली जाएं तो आपको कोई बदलाव नजर नहीं आएगा। वही तंग गलियां, गंदगी और भीड़भाड़ के बीच प्लास्टिक की चादरों तले ढंके झोपड़े। इन झोंपड़ों के भीतर जाने पर आपको बंगाली कला की एक अलग दुनिया नजर आएगी और हाल के वर्षों में यह कई बार बदली है। बीरेन मल्लिक पिछले 26 साल से दुर्गा प्रतिमाएं बनाते हैं। उनके मुताबिक, इस बार देवी की मानवीय आंखों की जगह टाना चोक (चौडी, खिंची हुई आंखों) का चलन है। 52 वसंत पार कर चुके बीरेन को अभी भी चोखू दान (मां की आंखें बनाने का काम) में घबराहट होती है। उनका दावा है कि दुर्गा पूजा से पहले कई हफ्तों तक ध्यान करने के बाद उन्हें वह ‘दृष्टि’ प्राप्त होती है, जिसकी बदौलत वे अपने काम को अंजाम दे पाते हैं।
प्रतिमाएं बनाने के बाद उनकी साज-सज्जा का मामला आयोजकों के मन मुताबिक होता है। लोकनाथ शिल्पालय के दीपक डे इस बाजार की मजबूरी मानते हुए कहते हैं ‘साल के तीन महीने ही कमाई होती है। बाकी दिनों में देवी मुख बनाने का काम चलता है, पर ये गुजारे के लिए काफी नहीं है।’ कोलकाता आने वाले विदेशियों के बीच ये स्मृति चिन्ह बहुत लोकप्रिय हैं, जो वे यादगार के तौर पर साथ ले जाते हैं। प्रतिमाओं का एक सेट बनाने में 20 लीटर पेंट लगता है। ऐसे में अगर कोई ईको-फ्रेंडली पेंट की जिद करे तो इसे पूरा कर पाना कुमारटुली के हर मूर्तिकार के बस में नहीं। कंपनियां उन्हें पांच लीटर पेंट मुफ्त में देती हैं, बाकी 15 लीटर का खर्च उन्हें अपनी जेब से चुकाना होता है।
भव्य पंडाल कोलकाता के दुर्गापूजा की पहचान हैं। इनमें भी सबसे पुराने और प्रतिष्ठित पंडालों में बागबाजार सार्वजनिन दुर्गोत्सव समिति का पंडाल परंपराओं और संस्कृति के लिहाज से बहुत लोकप्रिय है। यहां आपको बंगाली नृत्य, हस्तकला और शिल्पकला के नायाब नमूने दिखेंगे। श्यामबाजार मेट्रो स्टेशन पर उतरकर कुछ मिनटों में उत्तरी कोलकाता की इस झांकी तक पहुंचा जा सकता है।
कॉलेज स्क्वेयर का पंडाल पिछले 50 साल से बेहतरीन सजावट के लिए मशहूर है। इसके आयोजक पूजा के दौरान रक्तदान शिविर, गरीबों को मुफ्त दवा बांटने, बच्चों के लिए भोजन, कपड़े का इंतजाम करने का काम भी करते हैं। महात्मा गांधी रोड या सेंट्रल मेट्रो से इस झांकी तक पहुंचा जा सकता है।
दक्षिणी कालीघाट का बादामतला पूजा पंडाल हर साल बेहतरीन सजावट के लिए अवार्ड बटोरता रहा है, तो 1952 में स्थापित सुरुचि संघ का पंडाल खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए मशहूर है। हर साल इस पंडाल की सजावट एक अलग थीम पर होती है। अगर आपको पूजा पंडाल में नियोन लाइटिंग का कमाल देखना हो तो एकडालिया एवरग्रीन क्लब आएं। हाल में यह क्लब कलकत्ता हाईकोर्ट के उस फैसले से सुर्खियों में आया, जिसमें कहा गया था कि शहर के रेड लाइट क्षेत्र सोनागाछी के नजदीक एक एनजीओ को दुर्गा पूजा आयोजन और उसमें सैक्स वर्कर्स की सहभागिता की पुलिस ने अनुमति नहीं दी।
बहरहाल, तमाम विवादों के बीच सिटी ऑफ जॉय में हर कोई इन चार दिनों को भरपूर जी लेना चाहता है। खुशी, उल्लास के मारे आंखों की नींद गायब हो जाएगी। पुराने दोस्तों से मुलाकात। भूले-बिसरे रिश्तों को नए सिरे से जोड़ने और गलतफहमियों को मिटाकर आपस में हिल-मिलकर खुशियां बांटने का नाम ही है बंगाल का दुर्गोत्सव। यही इस चार दिवसीय जलसे की जान है।